बहरहाल, नाम की कहानियां ज्यादा लंबी ना चले ही तो ठीक है. ना नाम टिकता है ना रहता है. काम जरूर रह जाता है. वह कुछ बड़ा कर गए तो उसकी निशानियां निशानदेही छोड़ जाती है और किले फानूस पर पीढ़ियां फोटो शेयर गुजर जाती है.
फिलहाल अपने नाम की वकालत करूं तो बंदा बैरागी पत्रकार बनकर रोजी रोटी कमा रहा है. लेखकीय तबीयत से अंदर की आग ठंडी होती है. खाकसार ने 15 साल कथित मुख्यधारा की मीडिया में बहा दिए, कुछ खास तो नहीं उखाड़ा़. लेकिन दुनिया के दड़बे में रहकर जीने वालों से कुछ ठीक ठाक देख ली. वैसे इस देखने का गुमान नहीं है चूतियापे में बहुत सी चीजें हो जाती हैं तो सो ये भी हो गया.
वैसे इस अंदाज-ए-बयां का हिसाब धारा के साथ बहकर निकला है. जिंदगी के साथ कुछ खास छेड़छाड़ नही की है जैसी बह रही है वैसी बहने दी है, सो ऐसे दिखने और लगने लगे हैं.
आप भी ज्यादा लोड मत लीजिए..!
उपलब्धि के तौर पर मेरा लिखा ही है. मरने के बाद शायद कुल गोत्र के हिस्सेे यही रह जाए. वसुधा, नया ज्ञानोदय, हंस, साक्षात्कार, वागर्थ जैसी जगहों पर छप छपा गए हैं. बाकी का बचा समालोचन, जानकीपुल, और अमर उजाला जैसी जगहों पर पाया जाता हूं. फेसबुक पता Sarang Upadhyay के नाम से मिल जाएगा.
दुआओं में याद रखना
भूलचूक माफ करना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें